पाप और पुण्य | Motivational Story
महर्षि वेदवियासने अनेक ग्रंथो की रचना की उनके द्वारा रचित श्रीमद्भागवत मनुष्य मात्र के लिये न केवल जीवन बल्कि मृत्यु की सार्थक ताका सन्देश है | सात दिन बाद मृत्यु है यह जानने के बाद कोई कैसे शांत रेह सकता है |
मृत्यु का वरण कैसे हो यह भागवतजी का बड़ा सन्देश है एक बार नारद जी ने महर्षि देववयास से यह प्रशन किया की इस महापुराण को कोई न पढ़े तो सार रूप मे उसके लिये आपका सन्देश क्या है महर्षि वेदवियासनेसार सन्देश कहा |
दूसरे का हित चिंतन ही पुण्य और दूसरे को पीड़ा पहुँचाना ही पाप है | अगर कोई अठारह पुराण न पढ़े तो यही वचन उसके जीवन को निर्मल बना देने के लिये बहुत है |
दूसरे का हित चिंतन ही पुण्य
रामायण हो या भागवतजी सबका मूल सन्देश एक ही है वह है परोपकार नानक हो या कबीर सबने यही कहा है की परोपकार यदि किसी मनुष्य मे उतर जाये तो वह समझिये सरे तीर्थ कर चुका, सारे ग्रन्थ पढ़ चुका |
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उसी तरह जिसका उद्देश्य मात्र दुसरो को पीड़ा पहुँचाना है वह किसी बड़े हतियारे से भी बड़ा पापी है पर हित से बड़ा कोई धर्म नहीं है और दूसरे को पीड़ा पहुंचाने से बड़ा नीच कर्म नहीं है परोपकार को जहाँ बड़ा पुण्य कहा गया वही दूसरे को पीड़ा पहुँचाना अधर्म कहा गया है |
पाप और पुण्य
धार्मिक हो जाने के लिये बड़े ज्ञान या शास्त्र अथवा मंदिर की राह जाने की भी जरुरत नहीं है दुसरो की पीड़ा समझना उसे हरना ही धर्म है |
परपीडनम की बात कबीर द्वारा भी कही गयी है परोपकार यदि नहीं है तो पुण्य नहीं है किन्तु यदि इसके विपरीत आचरण है तो उसका कर्म अधर्म है वह पाप है वह काफिर बेपीर है क्योकि हमारे धर्म का मूल ही दया है |
कबीर ने परमार्थ के लिये यहाँ तक कहा कि जो दूसरो की मदद कर रहा है दूसरो के काम आ रहा है भगवान उससे दौड़कर मिलते है |
परमार्थ को स्वाभिमान से भी जोड़ते हुए कबीर ने कहा परमार्थ के लिये मैं सब करने को तैयार हूँ |
परोपकार की उत्पति करुणा से है परोपकार की सीख हमे प्रकृति से सहज मिल रही है | सूर्य, चन्द्र, आकाश, वायु, पृथ्वी, अग्नि, जल, पेड़, आदि सहज ही मानव कल्याण कर रहे है |
निष्कर्ष
कहा जाता है की छीनकर खाने वालो का कभी पेट नहीं भरता और बाँट कर खाने वाला कभी भूखा नहीं मरता परोपकार प्रकृति की तरह सहज होना चाहिए |
अर्थात शरण मे आये मित्र, शत्रु, कीट, पतंग, बालक, वृद्ध, सभी के दुखो का निवारण निष्काम भाव से करना परोपकार है यह सहजता प्रकृति की तरह हो |
मनुष्य के साथ यह बड़ा विरोधाभास है कि वह पुण्य के सुखद फल की कामना करता है, किन्तु पुण्य कर्म नहीं करना चाहिए | इसी तरह वह पाप के फल को भोगने से बचता है किन्तु बड़ी चतुराई से पाप कर्म करता रहता है |
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